Friday, March 16, 2012

वो मैं था मैं

कभी किसी लेखक की कलम का एक खवाब था मैं,
उन उड़ते हुए परिंदों के आसमान छूने का अरमान था मैं
उँगलियों से गुदगुदाती हुई एक नन्ही सी गुडिया के चेहरे की हसी था मैं,
माँ के आँचल में मिलने वाले सुकून की एक तस्वीर था मैं
हाँ वो मैं था मैं

धडकने वाले दिल की पहली धड़कन था मैं,
सूरज की पहली किरण और चांदनी की पहली रौशनी था मैं
लिखी गयी कहानी का अंतिम अध्याय था मैं,
चली गयी चाल का अंतिम हिस्सा था मैं
हाँ वो मैं था मैं

खवाबो में बनाये गए सबसे खुबसूरत महल की पेशकश था मैं,
दूर कहीं किसी कोयल की कूक की एक ध्वनि था मैं
सुट्टे का आखरी कश और पिए गए जाम की आखरी घूँट था मैं,
सीखते सीखते इस सफ़र में की गयी गलती की आखरी चुक था मैं
हाँ वो मैं था मैं

आज उस लेखक ने इस खवाब को भुलाया है,
उड़ते हुए परिंदों ने इस अरमान को ठुकराया है
उन उँगलियों में गुदगुदी का एहसास ना रहा,
माँ के आँचल की तलाश की पर कोई रास्ता ना रहा
ना यह ना था मैं

अब वो धड़कने कुछ सोचती नहीं,
किरणे और चांदनी अब मुझे अपने आघोष में दबोचती नहीं
उस कहानी को पड़ने वाला वो विद्वान ना रहा,
चाल को चलने वाला वो खिलाडी ना रहा
ना यह ना था मैं

खवाब वही है पर वो महल न रहे,
कहीं दूर छुपी है वो कोयल सो अब वो गूंज ना रहे
सुट्टे के अब भुजने का धुंआ ही धुंआ है,
चूक नहीं होती क्यूंकि उपकरणों की संगत की दुआ ही दुआ है
ना यह ना था मैं

कहीं खोया हूँ मैं और जल्द अपनी ही तलाश है
फिर से वैसे दुनिया मैं हस्ते हुए बोलने का वही अरमान है
"हाँ यही था मैं, यही था मैं"


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